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कविता

2. चंद्रमुक्तकावली

चंद्रमोहन रणजीत सिंह


मंगल कामना

एक ध्‍येय हो जन मानव का अवगुण निकट न आवें।
एक भाव नहिं लेश मात्र हो, हरजन प्‍यार दिखावें।।
हो गौरव नहिं इतिहास हमारा, अनुपम जन मन भावे।
सत आचार विचार सभ्‍यता, अमल भाव दर्शावें।।
मातृभूमि के शिर संकट को, सब मिल बेगि हटावें।।
जन्‍मभूमि पावन मनभावन, विमल सुयश नित गावें।।
जाग्रत हो नित प्रेम परस्‍पर, समता भाव न जावे।
हृदय सीप से पावन मोती, तब नित हरजन पावें।।


शुभ कर्म ही पवित्र जीवन है

अटल शुभ कर्म अपनाने में, ही होगा सदा अच्‍छा।
दगाबाजी नहीं करना, तभी होगा सदा अच्‍छा।।
सदा ही सत्‍यकर्मों को, है अपनाना सदा अच्‍छा।
जुवारी चोर व्‍यभिचारी, नहीं बनना सदा अच्‍छा।।
पिता-माता-गुरु भक्ति में, मन लाना सदा अच्‍छा।
लगा मत प्रीति पर नारी से, होगा सदा अच्‍छा।।
करो मत संग धुर्तों का, समझना ये सदा अच्‍छा।
बिगाडो़ ना किसी का काम, जीवन में सदा अच्‍छा।।
कभी निंदा नहीं करना, जन्‍मभर में सदा अच्‍छा।
दुखी को देख मत हंसना, मेरे मित्रो सदा अच्‍छा।।


बालकों की प्रार्थना

मेरी अरज सुनो भगवान।
                दे दो हमको सुंदर ज्ञान।।
बना प्रभु हमको इंसान।
                बनें न हम जग में शैतान।।
दूर करो मेरा अज्ञान।
                इतनी दया करो भगवान।।
ऐसा बढे़ हमारा ज्ञान।
                धर्म-कर्म की हो पहचान।।
कभी न हो जग में अपमान।
                करे बडो़ का हम सम्‍मान।।
भूल रहे हैं हम अनजान।
                हम अति बालक हैं नादान।।


मुझको नजर से गिरा न देना

शरण में आके पडा़ हूँ भगवान, दया को अपनी हटा न लेना।
तुम्‍हीं हो माता पिता हमारे, प्रभु कभी तुम भुला न देना।।
कमी न कुछ है तुम्‍हारे घर में, महान महिमा है मेरे स्‍वामी।
कहा रहे हो दयाल प्रभु तुम, दयालु को भुला न देना।।
पतित न जग में है कोई मुझ सम, न तु से पावन है कोई बढ़कर।
है हमको आशा तुम्‍हारी प्रभुवर, दया का दीपक बुझा न देना।।
हैं चाँद-सूरज-सितारे जितने, तुम्‍हारी शक्ति से चल रहे हैं।
अनंत हो तुम सब अंतवाले, मुझे नजर से गिरा न देना।।


सत्‍य ही ईश्‍वर है

सत्‍य को कहते हैं भगवान।
सत्‍य शब्‍द पर्याय ब्रह्म का, संतत शीर्षस्‍थान।
सत्‍य हीन शव सम सब साधन, संबल सत्‍य ही मान।। सत्‍य.।।
दिव्‍यालोक सनातन सत्‍यम्, रहित तिमिर अज्ञान।
अनुपम सुधा सुरम्‍य अमरता, देत सदैव समान।। सत्‍य.।।
अति कराल त्रैताप हारिणी, सुख प्रद शंभु समान।
परम पुनीत सुमुक्तिदायिनी, सत्‍य की यह वरदान।। सत्‍य.।।
पंचविकार चक्षुश्रवा कर, मंत्र सुगारुड़ जान।
सत्‍य सदैव सुबुद्धि प्रकाशक, अनुपम सत्‍य बखान।। सत्‍य.।।


शरणागत को अपनाते हो

एक विनय हमारी सुन लो हरी; सब जग के नाथ कहाते हो।
नर नारी सुयश नित गाते हैं, जन को न कभी विसराते हो।।
नहीं एक सहारा लेते हो, प्रभु सारे विश्‍व बनाने में।
सारे जग के प्रतिपालक हो, तुम ही सब बोझ उठाते हो।।
सब कुछ तुम देनेवाले हो, सब आश तुम्‍हारी करते हैं।
नहिं आदि अंत कुछ है स्‍वामी, शरणागत को अपनाते हो।।
जो भूलें तुम्‍हें वे भूल रहे, एक सार तुम्‍हारी भक्ति है।
करुणा निधि अंतर्यामी हो जीवन की ज्‍योति जगाते हो।।


कभी न भुलाना

कभी न भुलाना कभी न भुलाना जो करना है तुमको कभी न भुलाना।
नेता को देखो जवाहर को देखो, कदम आगे आगे बढा़ते ही जाना।।
अगर हो सके तो भगतसिंह को देखो, जिसे भूल पाता कभी ना जमाना।
शिवाजी की साहस समझना है तुमको, सदा सीखना देश ऊँचा उठाना।।
अगर जान बाकी है तन में तुम्‍हारे तो झाँसी की रानी को मन में बिठाना।
सती पद्मनी रानी दुर्गावती को, बता कैसे भूलो न भूला जमाना।।
न आई कभी याद राणा की करतब तो, जी कर के हम मर गए ऐसे माना।
दीवारों में कोमल बदन को चुनाकर, हुवे वीर बालक धर्म पर दीवाना।


होली पर्व

आया होली पर्व, पर्व ने किया देश उजाला।
मंगलमय पावन मन को भी अति मंगल कर डाला।।
जिधर देखिए धूम मची मन प्रेम में है मतवाला।
सभी मिल रहे प्रेम भाव से, रंक रहे या लाला।।
लिए अबीर गुलाल कुमकुमा, अद्भुत रंग निराला।
मस्‍त हो रहे झूम रहे हैं, पीकर प्रेम कर प्‍याला।।
पाप हिरण्‍यकशिपुर से पड़ गई, ज्ञान भक्‍त से पाला।
अज्ञ रूप जल गई होलिका, भयो दनुज मुख काला।।
होली पर्व धन्‍य तू देती, सबको ज्ञान की माला।
भेद भाव किए दूर, सभी को एक सूत्र में डाला।।


वीर शिवाजी

क्षत्रपती श्री वीर शिवा की, निशिदिन जै जैकार करो।
ऐसे महाबली योधा को मन से जै जैकार करो।।
हाथों में तलवार उठाकर, लाज बचाली भारत की।
सफल बनाया अपना जीवन उनकी जै जैकार करो।।
बैरी दल पर विजय प्राप्‍त कर, निज कर्तव्‍य निभाया।
जिधर झुका हो गया सफल, उस वीर की जै-जैकार करो।।
क्षत्रपती रणधीर शिवाजी, नैया, जिसने पार किया।
झुका दिया वैरी को सब जन, मिलकर जै जैकार करो।।


कर्मवीर बापूजी

कर्मवीर वह बने तभी, जब निज पग पर हो जाय खडे़।
समझो तभी सबेरा है, जब सोते से नर जाग पडे़।।
सिद्धांत यही है बापू का, उन्‍नति पथ पर नित बढे़ चलो।
सब भेद भाव को दूर करो, सब एक सूत्र में बँधे चलो।।
शिर नहीं काटते बापूजी, शिर बदल दिया करते थे।
जिस शिर में शैतान रहा, उसको वे दूर करते थे।।
जब हिंदू मुस्लिम कह करके, खून की नदी बहाते थे।
उन्‍हें एकता में लाकर के, प्रेम का जल बरसाते थे।।
इतिहास बना है बापू का, इतिहास अधूरा रहा नहीं।
इतिहास बना है देश की खातिर, क्‍या क्‍या संकट सहा नहीं।।
इतिहास बना है सत्‍याग्रह, या असहयोग अपनाने में।
इतिहास बना है हरिजनों को, प्‍यार से गले लगाने में।।
इतिहास बना है बापू का, भारत आजाद कराने में।
इतिहास बना है बापूजी का, तीन गोलियाँ खाने में।
बापूजी का असली साहस, उस दिन दुनिया ने पहचाना।
जब ललकारा अंगरेजों को, तुम्‍हें यहाँ से है जाना।।
रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम।
ईश्‍वर अल्‍लाह तेरे नाम, सबको सुम्‍मति दो भगवान।
यह परम मंत्र था बापू का, इसको वे कहा करते थे।।
शाम सबेरे बापूजी, गीता का पाठ करते थे।
देश की खातिर बापूजी, जेल यातना सहते थे।।
फिर भी बापू हँसी-खुशी में, बडे़ प्‍यार से रहते थे।
मत समझो बापू को यूँ ही, वे बडे़ पतीव्रतधारी थे।।
कर्तव्‍य परायण धैर्यवान, वे परम पूज्‍य अविकारी थे।
शांति हृदय प्रिय नेता थे, वे परम तपस्‍वी ज्ञानी थे।।
राष्‍ट्रपिता थे कर्मवीर थे, देशभक्‍त सेनानी थे।
थे रामभक्‍त नहिं कामभक्‍त थे, वाक् युद्ध के जेता थे।
थे सुयस पात्र नहिं अयशपात्र थे, प्रिय भारत के नेता थे।।
थे शंकर नहिं प्रलयंकर थे, असत कर्म के नाशक थे।
थे पुण्‍य पुरुष नहिं, पतित पुरुष थे विमल शांति के शासक थे।।
हे बापू तेरी अमर कथा, हरजन जग में अपनाते हैं।
जो मार्ग दिखा कर गए उसे, अपनाकर जन सुख पाते हैं।।


मिल पहले इंसान से

मिलना है श्रीराम से तो मिल पहले हनुमान से।
जीवन सफल बनाना है, तो मिल जा संत सुजान से।।
विद्या पढ़ना है तो जाके, मिल पहले विद्वान से।
गुणी तुझे बनना है, जाके मिल कोई गुणवान से।।
पार उतरना है तो ढूँढो़, केवट के दरम्‍यान से।
मिलना है मंत्री से, जाके मिल पहलेदरवान से।।
अच्‍छी औषधि पाना है, तो मिल जा वैद्य सुजान से।
तुझे देवता बनना है तो, मिल पहले इंसान से।।


सावधान रहो

ओ दाढी़ वाले फूँक न चूल्‍हा, दाढी़ तेरी जल जाएगी।
मत बैर बढा़ बिन कारण के, नहिं पीठ तेरी छिल जाएगी।।
पर नारी से प्रेम न कर, नहिं मान तेरी घट जाएगी।
शिर ऊँचा करके मत चलना, नहिं शान तेरी मिट जाएगी।।
मत आय से ज्‍यादा खर्च करो, नहिं तो मुश्किल पड़ जाएगी।
कुछ दान-कर्म करते ही चलो, नहिं सत्‍य-कर्म घट जाएगी।।
नित आशिर्वाद बडो़ से लो, नहिं आयु तेरी घट जाएगी।
नित सावधान चोरों से रहो, नहिं जेब तेरी कट जाएगी।


संस्‍कृति का प्रचार

सुजन जन प्रेम प्रदीप जलावो।
शुद्ध संस्‍कृति फुलवारी को धरती बीच सजावो।
हर मानव तक शुभ सौरभ को, प्रमुदित हो पहुँचावो।। सुजन।।
कलाकार-लेखक-कवि गण मिल ऐसा कदम उठावो।
कर्मवीर बन कर्म क्षेत्र में, अमृत रस बरसावो।। सुजन।।
सत्‍य प्रचारक बने हुवे जो, उनकर साथ निभावो।
घिरे हुवे निद्रा-तंद्रा में, अति अविलंब जगावो।। सुजन।।
सत साहित्‍य विमल सागर में, कुवलय ज्ञान खिलाओ।
अति पावन मन भावन जल से, मन की तृषा मिटावो।। सुजन।।
वेद शास्‍त्र गीता रामायण, का संदेश सुनावो।
सुरभित हो सुरिनाम हमारा, शांति हृदय में पावो।। सुजन।।


श्रीमदभगवद् गीता

श्रीमद्भगवत गीता जग में, दिव्‍यभानु उग आया।
जिसने सुंदर ज्ञान रश्मि से भ्रमतामिश्र मिटाया।
तर्क-वितर्क-कुतर्क आदि को, जिसने दूर भगाया।।
समुचित उत्तर रूप तेज से, सादर जग चमकाया।
देश विदेश आस्तिकों का एक, आश्रित बन कर आया।।
धर्म-कर्म आचार सभ्‍यता, का शुभ पाठ पढा़या।
ब्रह्मनि रूपण निगम धर्मविधि, कर्मयोग दर्शाया।
उपनिषदों का सार परा, विद्या का मर्म बताया।
पुरुषोत्तम श्री कृष्‍ण वीर, अर्जुन को ज्ञान सुनाया।
पृथा पुत्र सुन भ्रमित द्वदय से सब संदेह हटाया।।


वीर बनो

बनो वीर योधा करो जाति सेवा, न जीवन को योंही वृथा तुम गँवाना।
कभी भय करोना दुराचारियों से, कदम आगे आगे बढा़ते ही जाना।।
करो याद राणा के कर्तब को मन में, न सीखा कभी अपने सर को झुकाना।
शिवा ऐसे योधा तुम्‍हीं में हुवे हैं, अमर नाम मन से कभी न भुलाना।
तुम्‍हीं में कर्ण भीम अर्जुन हुवे थे, परम बीरता को सकल विश्‍व जाना।।
कर्मवीर बन के दिखा दो सभी को, सफल अपना जीवन इसी से बनाना।
बिताना है जीवन तुम्‍हें मेरे प्‍यारे, पशु तुल्‍य जीवन न अपना बनाना।
बली साहसी हो किसी से न कम हो, दुनिया को ऐसे तुम्‍हें है दिखाना।।


मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम

चैत्र मास के नौमि तिथि, इसलिए हमें है प्‍यारा।
इसी दिवस श्रीरामचंद्र ने, सुंदर नर तन धारा।।
मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु ने, अमल सुयश विस्‍तारा।
भूमंडल मंडल जनरंजन, अखिल विश्‍व के प्‍यारा।
आज बना है मानव दानव, सत्‍य धर्म को भारा।
सत्‍य-धर्म का नाशक होता, स्‍वयं आत्‍म हत्‍यारा।।
तुलना करो राम के गुण और आज के नर से सारा।
धरती आसमान सा अंतर, हमने स्‍वयं विचारा।।
अपना लो नर नारी राम के, गुण है अमृत धारा।
सुख संपत्ति कल्‍याणमयी है, त्रास विभंजन हारा।।


अपनी विनय सुनाए

तुम नाथ उसे अपनाए, जो शरण तुम्‍हारे आए।
उस से नहिं दया छिपाए, जो भक्‍त तेरा गुण गाए।।
नित अपनी दया दिखाते, पतितों को तुम अपनाते।
हम भी एक पतित कहाए, क्‍यों नाथ हमें विसराए।।
हरि करुणा के तुम सागर, सुरनर में तुम प्रभु नागर।
तब महिमा अगम कहाए, जो सकल जगत में छाए।।
हरि तुम हो अंतर्यामी, कुछ छिपा न जग के स्‍वामी।
कुछ हमसे नहीं बन पाए, प्रभु अपनी विनय सुनाए।।


गुण राम का लेना क्‍या जाने

जो सत्‍य बोलने वाले हैं, वे झूठ बोलना क्‍या जाने।
जो झूठ सदा बकते रहते, सच कहने का सुख क्‍या जाने।।
जो फूल सुगंध उडा़ता है, दुर्गंध उडा़ना क्‍या जाने।
विषधर विष से दुख देता है, वह सुख पहुँचाना क्‍या जाने।।
कट जाय गला गर योधा का, रण पीठ दिखाना क्‍या जाने।
जो कायर जग में होते हैं, वीरता दिखाना क्‍या जाने।।
जो शूरवीर बन जाते हैं, वे कायर बनना क्‍या जाने।
जो गीदड़ से लड़ना सीखा, शेरों से लड़ना क्‍या जाने।।
जिसके शिर पर है पाप लदा, वे धर्म कमाना क्‍या जाने।
जो जीने का सुख समझ गए, वे पाप कमाना क्‍या जाने।।
नहिं भले जनों का संग किए, सत संगति का सुख क्‍या जाने।
जो रावण का गुण लेते हैं, गुण राम का लेना क्‍या जाने।।


प्रभु है आशा तेरी

     मेरी नैया को कर दो पार, प्रभु है आशा तेरी।
  मन रहता सदा बेकरार, प्रभु है आशा तेरी।। मेरी.।।
हे नाथ मेरी आशा यही है,
     जीवन को दीजे सुधार, प्रभु है आशा तेरी।। मेरी.।।
सेवक बना लो अपना हमें तुम,
     लागी भक्ति में मन है हमार, प्रभु है आशा तेरी।। मेरी.।।
रागी रहूँ ना विरागी बनूँ मैं,
     करता रहूँ तुमसे प्‍यार, प्रभु है आशा तेरी।। मेरी.।।


दयालु भगवान

जगत पिता प्रभु कहाने वाले, दया करो हे दयालु भगवान।
शरण में रख लो हमें सदा तुम, दया करो हे दयालु भगवान।।
है भक्ति मुक्ति की एक साधन, तुम्‍हारे चरणों की नाथ सेवा।
इसी से आए शरण तुम्‍हारे, दया करो हे दयालु भगवान।।
तुम्‍हीं खेवैया हो ऐसी नैया, जो दुख की सागर में डूबती हो।
जो आशा करते वे पार जाते, दया करो हे दयालु भगवान।।
मुझे न आशा किसी की स्‍वामी, तुम्‍हीं हो सब कुछ हमारे प्रभुवर।
भुला न देना कभी हमें तुम, दया करो हे दयालु भगवान।।


प्रभु से प्रार्थना

करुणा निधि अरज सुनो मेरी, हम शरण तुम्‍हारे आए हैं।
आनंद के धाम कहाते हो, प्रभु भक्ति सुजन मन भाए हैं।।
तुम अकथ अनंत अनादि हरि, माया है अपरंपार तेरा।
अपना लो हमें हे जगत पिता, प्रभु सुयश जगत में छाए हैं।।
हे नाथ यही है अरज मेरी, अवगुण मन से सब दूर करो।
सुख शांति निकेतन मंगलमय, सुंदर यश वेदन गाए हैं।।
अभिलाष यही है नाथ दया की दृष्टि सदा मुझ पर रखना।
अवगुण पर ध्‍यान न देना मेरे, हम अपनी अरज सुनाए हैं।।


लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्‍ण

प्रगटे कृष्‍णचंद्र सुखदाई।
काराग्रह में प्रगट भये हैं, माता-पिता सुख पाई।
पृथ्‍वी भार मिटाने को हरि, नर कर रूप बनाई।। प्रगटे.।।
ले वसुदेव चले मथुरा से, गोकुल पहुँचे जाई।
जाग नींद से यशुमति मैया, लीन्‍हों गोद उठाई।। प्रगटे.।।
सकल जगत के पालक हैं, तेहि पालत यशुमति माई।
लीला अगम अगोचर जाकी, कोई पार ना पाई।। प्रगटे.।।
साँवलि सुरत मोहनि मूरत, कमल नैन छवि छाई।
असुर नशावन जन मनभावन, संत जनन मन आई।। प्रगटे.।।


वसंत वर्णन

सुंदर भारत देश को किसने, सुंदर और बनाया।
है स्‍वभावत: इसका उत्तर, रितु वसंत अब आया।।
बिथिन में पुष्‍पों में नवल-नवेली में है छाया।
हर मलिंद के गुंजन, कुंजन में शान दिखाया।।
हर प्रभात रवि प्रभा बहन के आगे शीश झुकाया।
स्मित मुस्‍कान अधर पर रख के, शोभा और बढा़या।।
हे वसंत हमने भी इन, बातों से अति दुख पाया।
केवल दो ही मास देश में, अपना राज्‍य जमाया।।
पर दिन जाते देर न लगता, सुंदर यश फिर छाया।
चैत्र मास के आते ही, छिन गया राज्‍य फिर पाया।।
हुवा वही सत्‍कार देश में, द्वेष भाव विसराया।
वृक्ष लता पशु पक्षी कृमि तक, अपना प्रेम दिखाया।।
न‍हीं शबद की ऐसी रचना, कोई भी कर पाया।
जिस को लेकर कवि यश गावे, इसी ने मन दुख पाया।।
पर सुयोग्‍य ज्ञानी जन मिलकर, सुंदर अर्थ बनाया।
कह करके रितुराज तुम्‍हें, सिंहासन पर बैठाया।।


श्रेष्‍ठ बनो

बनो न रावण, राम बनो तुम।
बनो कंस नहिं, श्‍याम बनो तुम।।
बनो न कांटा, फूल बनो तुम।
बनो श्‍वान नहिं, सिंह बनो तुम।।
बनो न मूरख, चतुर बनो तुम।
बनो सर्प नहिं, सुजन बनो तुम।।
बनो न कायर वीर बनो तुम।
वीर बनो रणधीर बनो तुम।।
बनो बुरा नहिं, भला बनो तुम।।
बनो कुटिल नहिं, संत बनो तुम।।


भक्‍तों की पुकार-1

आवो चक्र सुदर्शन धारी
हो रहि धर्म-कर्म की स्‍वाहा, भ्रष्‍ट भये नर नारी।
दूध दही घी खाना छूटा, जो रहे मांसाहारी।। आवो.।।
हेलो हेलो हला हृदय में, दंड प्रणाम विसारी।
अगणित भस्‍मासुर प्रगटे हैं, कहाँ छिपे त्रिपुरारी।। आवो.।।
कालनेम बढ़ गए कहाँ है, पवन पुत्र बलधारी।
धूर्तों की ना कमी जगत में, रोती भूमि विचारी।। आवो.।।
उठी पाप की ज्‍वाला जग में, जलते जनता सारी।
पग पग पर ठोकर खाते हैं, फिर भी बुद्धि विसारी।। आवो.।।


भक्‍तों की पुकार-2

आवो चक्र सुदर्शन धारी।।
आज सभ्‍यता और संस्‍कृति को जन रहे विसारी।
जन्‍म दिवस की सुनो कहानी, कैसी मति गई मारी।। आवो.।।
बही रक्‍त की धारा कट रहिं, मुर्गी खंसी विचारी।
नहीं शराब बोतल की गिनती, पीते लोग सुखारी।।
बजा बेन जब अगड़म-बगड़म, मस्‍त हैं जनता सारी।
श्‍याम की मुरली फीकी पड़ गई, नाच उठे नर नारी।। आवो.।।
होन कर्म से धरती काँपी, कहाँ छिपे बनवारी।
अब इससे आगे क्‍या होगा, किसने बात विचारी।। आवो.।।


भक्‍तों की पुकार-3

आवो चक्र सुदर्शन धारी।।
आज युवक बन रहे हमारे, कैसे अत्‍याचारी।
घर की नारी मन नहिं भावे, मन भावे पर नारी।। आवो.।।
मिल जाती गर श्‍यामा हेमा, वैजंती सी प्‍यारी।
जीवन सफल जगत में होता, होती मान हमारी।। आवो.।।
सदा कुटिलता में मन राखें, निज संस्‍कृति बिसारी।
मद्यपान से बढ़कर क्‍या है, पीते नहीं अनारी।। आवो.।।
आवो आवो हे करुणा निधि भक्‍तों के भयहारी।
भूमंडल कर त्रास हरो हरि, केवल आस तुम्‍हारी।। आवो.।।


भक्‍तों की पुकार-4

आवो चक्र सुदर्शन धारी।।
संध्‍या-हवन-पाठ-पूजा, जनता रहे विसारी।
ईश्‍वर पर विश्‍वास न रखते, अधम बने नर नारी।। आवो.।।
बालक को क्‍या शिक्षा देंगे, माता-पिता अनारी।
नश्‍वर तन पर अति घमंड, करते हैं मति गई मारी।। आवो.।।
लघु जीवन पर क्‍या कुछ गम है, खुद को अमर विचारी।
हँसी उडा़ते संत सुजन का, तनिक बुद्धि नहिं धारी।। आवो.।।
तन निर्बल पर छल में बल है, झूठ वचन है प्‍यारी।
हीन कर्म से कभी न हारे, सत से मन नित हारी।। आवो.।।


सत्‍य कर्म में देर करना ठीक नहीं

देर करो ना प्‍यारे मनुवा, करले जो भी करना है।
आखिर सब को इस दुनिया में थोडे़ दिन में मरना है।।
बाल अवस्‍था खेल-कूद में तू गारद कर डाला था।
ध्रुव ने बाल अवस्‍था में ही जपा मंत्र की माला था।
ध्रुव समान ना ध्‍यान लगाया, कहदे अब क्‍या धरना है।। आखिर.।।
तरुणा अवस्‍था के आते ही, मोह नशा में मस्‍त भया।
तू विलास के एक इशारे पर, ईश्‍वर को भूल गया।।
खो बैठा आदर्श सत्‍य का, पाप पंक में फँसना है।। आखिर.।।
संध्या आ गई जीवन की अब, वृद्ध अवस्‍था आया है।
देर हो रही सत्‍य कर्म में फिर भी सोना भाया है।
खाले के आँखें धर्म कमा ले, नहीं नरक में पड़ना है।। आखिर.।।


जन्‍मभूमि सिरनाम

हमारी जन्‍म भूमि सिरनाम।।
अति पावन मन भावन पाते, सदा सुजन विश्राम।
भूमंडल मंडन जनरंजन, उपमा रहित ललाम।। हमारी.।।
नदी पुनीत सुनिर्मल धारा, देत सदा आराम।
प्रजावृंद आनंद मनाते, गौरव मय गुणधाम।। हमारी.।।
शीतल बहुत समीर देश में है रुचिकर अभिराम।
गूँज रहा है घर घर में, जगत पिता का नाम।। हमारी.।।
सुंदरता पर्वतमाला की, विधि कृत विशद् मुदाम।
शांति पुंज यह देश रहे, हरजन होवे गुणधाम।। हमारी.।।


ईश्‍वर की भक्ति

प्रभु तेरी भक्ति में सब गुण दिखाया।
कहो भक्‍त तेरा न क्‍या जग में पाया।। प्रभु।।
महा ज्‍योति जगमग जगत में तुम्‍हारा।
इसे भक्‍त जन देख कर चैन पाया।। प्रभु।।
पिता और माता तुम्‍हीं सब जगत के।
प्रभु धन्‍य हो धन्‍य है तेरी माया।। प्रभु।।
अगोचर अलौकिक अगम हो अनादि।
महा शक्ति को नाथ वेदों ने गाया।। प्रभु।।
तुम्‍हें छोड़ कर जो भटकते हैं मूरख।
नहीं उनके मन में कभी चैन आया।। प्रभु।।
सकल दोष मन के मिटा देते क्षण में।
सुजन जन सदा तुम को अपना बनाया।। प्रभु।।
दोहा- वरुणालय शुभ ज्ञान के, अंतर रहति भगवान।
भेद न पाए आज तक, कोई चतुर सुजान।। 1 ।।
सिकता कण गिन लीजिए गिन तारा समुदाय।
बरसत गिनिए मेघकंण, प्रभु गुण गिना न जाय।। 2 ।।
गुणतीत अनुपम अतुल, निर्विकल्‍प निरधार।
पाए पाते पाएँगे, ना कोई भेद अपार।। 3 ।।
भ्रांति विदारण दुख हरण, भवभय नाशन हार।
अखिल विश्‍वनायक प्रभो, व्‍यापक जगदाधार।। 4 ।।
जनरंजन भंजन सदा, भक्‍तन पंचविकार।
सदा त्रिविध संताप से, रक्षक हो कर्तार।। 5 ।।
मैं मैं करते जग मरे, परहित विरले कोय।
जो परहित करके मरे, महा पुरुष जग सोय।। 6 ।।
तू धन संपति खोजता, तोहीं खोजत यमराज।
जब मिल जैहो खोज में, चलो छोड़ के राज।। 7 ।।
काढो़ घृत को दूध से, तिल से काढो़ तेल।
काढो़ ज्ञान सुजान से, राखो सबसे मेल।। 8 ।।
ओछे जग में कौन है, मूर्खों के शिर मौर।
ओछे जग में तीन हैं, चुगुल जुवारी चोर।। 9 ।।
सुंदर नीति है वही, बुधजन किए प्रकाश।
देश-जाति के शत्रु का, कर अविलंब विनाश।। 10 ।।
दूर कुटिलता से रहो, होगा नित कल्‍यान।
परहित में मन राखिए, सत्‍य वचन यह मान।। 11 ।।


अपनी मातृभाषा

निज भाषा को भूलना, है भारी अज्ञान।
अपनी भाषा सीखिए, नित होगा कल्‍यान।। 12 ।।
सब कुछ सीखे जगत में, भए गुणों के धाम।
निज भाषा सीखे नहीं, समझो सब बेकाम।। 13 ।।
हिंदी भाषा को पढो़, सुनो हिंदी के लाल।
हिंदी बोली बोलिए, इस पर नहीं सवाल।। 14 ।।
अँगुली रखना आग पर, है यह भारी भूल।
निज भाषा को भूलना, उससे बढ़कर शूल।। 15 ।।
पढ़ भषा निज देश का, पावोगे सम्‍मान।
निज भाषा को सीखिए, बढे़ तुम्‍हारो ज्ञान।। 16 ।।
अपनी भाषा को तजें, बोलें अटपट बोल।
हंस-हंस कर शिर पर लिए, हाय अज्ञात मोल।। 17 ।।
निज भाषा सीखे बिना, क्‍या जानोगे खास।
समझोगे कैसे बता, तुम अपना इतिहास।। 18 ।।
हिंदी भाषा भूल मत, करो निरंतर ध्‍यान।
हिंदी भाषा बोलिए, होवे निर्मल ज्ञान।। 19 ।।
राष्‍ट्रीय भाषा को पढो़, होय सदा कल्‍यान।
मातृ भाषा भी पढो़, तब हो चतुर सुजान।। 20 ।।
तन-मन-धन से कीजिए, निज भाषा प्रचार।
यह उन्‍नति की मूल है, कीजे सुजन विचार।। 21 ।।
हे सपूत सिरनाम के, कर हिंदी की मान।
खुद पढ़िए पुनि और को, कर आकर्षित ध्‍यान।। 22 ।।
गर तुम सीखोगे नहीं, हिंदी अक्षर ज्ञान।
आगे के संतान की, क्‍या होगी पहचान।। 23 ।।
कर सौदा मत चूक का, नहीं मिले आराम।
दिल्‍ली-पति के चूक से, भारत भया गुलाम।। 24 ।।
रावण चूका मूर्ख बच, हर्यो सिया सम नार।
बैर बढौ़ रघुनाथ सों, भयो वंश अंधियार।। 25 ।।
पढ़ने में लालन चुके, बैठे क्‍यों मन मार।
दोष देत हैं भाग्‍य का, जीवन भै अंधियार।। 26 ।।
नर तन पाके चुक गए, बने गधा के लाल।
पड़ी मार जब पीठ पर, ढोय रहे जंजाल।। 27 ।।
लड़का चूका पिता से, दियो उन्‍हें ठुकराय।
उलट वही शिर पर पडी़ बैठे रहे पछताय।। 28 ।।
नहीं चुकैयन की कमी, चूक गया सुल्‍तान।
शब्‍द बेध शर तान के, मार दियो चौहान।। 29 ।।
दाँव-पेंच में चुक गए, मल्‍लयुद्ध में शूर।
उलट गए मैदान में, विजय हो गई दूर।। 30 ।।
चुकी पूतना कुचन में, लिन्‍हों जहर लगाय।
कहा गरल हरि को करे, दीन्‍हों प्रान गंवाय।। 31 ।।
पंचवटी में चुक गई, शूर्पणखा धर रूप।
कान नाक दोनों कटी, हो गई अधिक कुरूप।। 32 ।।
चुकी कैकयी अवध में, दियो राम वनवास।
विधवापन अपयश लियो, निज सुख कियो विनाश।। 33 ।।
ज्ञान वही जिससे मिटे, मनकी सभी विकार।
शांति मिले जिन आत्‍म को, हो परलोक सुधार।। 34 ।।
बारी बारी लेत हैं, हर प्राणिहि यमराय।
जो है निज को अमर सम, समझ रहे हरषाय।। 35 ।।
धर्म मार्ग जग आठ हैं, यज्ञ दान तप जान।
सत्‍य क्षमा अध्‍ययन पुनि, दया अलोभ बखान।। 36 ।।
रहे सुमत जिन लोग में, सदा मिले कल्‍यान।
कुमत बसा जिस ठौर में, समझो विपत निधान।। 37 ।।
घटनी को बढ़नी कहें, सही बही बतलाय।
चलती को गाडी़ कहें, गए लोग बौराय।। 38 ।।
बात बता दीजे हमें, सुनो सुजन धर ध्‍यान।
कौन गेह श्‍मशान है, को घर स्‍वर्ग समान।। 39 ।।
जहाँ अतिथि की मान नहीं, वह घर ज्यों श्‍मशान।
जहाँ अतिथि की मान है, वह घर स्‍वर्ग समान।। 40 ।।
कौन है जो बिन पैर के, दौडे़ हाहाकार।
कौन है ऐसा जगत में, बिन मुख करे अहार।। 41 ।।
पवन बली बिन पैर के, दौडे़ हाहाकार।
अग्नि देवता जगत में, बिन मुख करे अहार।। 42 ।।
कर संगति नित सुजन के, बढे़ तुम्‍हारो ज्ञान।
दुर्जन संगति से मिले, कभी नहीं कल्‍यान।। 43 ।।
निर्धनता अरु मूर्खता, दोनों दुख की खान।
रहिए गर पर गेह में, बढ़कर विपत निधान।। 44 ।।
वचन मिष्‍ट उर में गरल, मित्र धर्म विपरीत।
शंखचूड़ सम समझिए, विधिन देय असमीत।। 45 ।।
निज मुख से बढ़ बढ़ करें, अपनी कीर्ति बखान।
बुद्धि हीन तिन को कहत, जग में सभी सुजान।। 46 ।।
मूर्ख शिष्‍य उपदेशिए, दुराचारिणी नार।
कंटक सम सालत हिए, बुधजन करहु विचार।। 47 ।।
विपत पडे़ तब परखिए, मित्र भ्रात पुनि नारि।
देत साथ साथी तभी, नहीं तो कंटक कारि।। 48 ।।
अशुचि मुर्खता कपट पुनि, वचन असत्‍य अरु क्रोध।
इनसे रहिए दूर नित, होत न मन में बोध।। 49 ।।
ऐसा मीठा मत बनो, तुम्‍हें निगल ले लोग।
कड़वा ऐसा ना बनो, रहो थूँकने योग।। 50 ।।
सर्प सिंह नृप मुर्ख शिशु, रोगी सूकर श्‍वान।
सोते से न जगाईए, करो न हित की हान।। 51 ।।
रूप वृथा विद्या बिना, व्‍यर्थ शील बिन नार।
सरुज देह भोजन वृथा, साहस बिन तलवार।। 52 ।।
संपति बड़ संतोष है, अति तृष्‍णा है आग।
कामधेनु सम ज्ञान है, शीतल जल अनुराग।। 53 ।।
मुर्ख पुत्र अति दीनता, दुराचारिणी मात।
मित्र स्‍वार्थी क्रूर नृप, करत दुखी नित गान।। 54 ।।
शोभा नर की दान है, संसय है नहिं कोय।
शोभित वंश सुपुत्र से, रैन चंद्र से लोप।। 55 ।।
विद्या अर्थी तुम सदा, रखना इस पर ध्‍यान।
श्‍वान नींद बक ध्‍यान पुनि, ब्रह्मचर्य की मान।। 56 ।।
अतिशय सरल स्‍वभाव से, रहना नहीं जरूर।
सीधे तरु कटि जात हैं, टेढे़ से सब दूर।। 57 ।।
सोन तपा कर परखिए, नर में लख गुणाचार।
त्‍याग शील गुण कर्म से, नर परखहु सुविचार।। 58 ।।
चक्षुश्रवा विष रदन में, वृश्चिक विष है पुच्‍छा।
दुर्जन विष प्रति अंग में, समझत सब को तुच्‍छ।। 59 ।।
इस असार संसार में, चार वस्‍तु हैं सार।
प्रिय-भाषण सतसंग पुनि, दया उचित व्‍यवहार।। 60 ।।
गुण बिन ऊँचे बैठिए, है शोभा कछु नहिं।
काग ऊँच तरु बैठकर, गरुड़ न बनत दिखाहिं।। 61 ।।
खल अरु कांटे दोउन को, है यह एक उपाय।
जूते से मुँह तोड़िए, नहिं तो दूर हो जाय।। 62 ।।
धर्मी या गुणवान की, जीवन सफल कहाय।
इन दोनों से रहित जो, जन्‍म अकारथ जाय।। 63 ।।
निज नारी निज संपति, में करना संतोष।
दान धर्म अध्‍ययन में कभी न लाना तोष।। 64 ।।
नर पाताल से लेत हैं, निर्मल नीर निकाल।
गुरु से विद्या लीजिए, सुख पावहु त्रैकाल।। 65 ।।
जरा रूप हर लेत हैं, हरत अंतक प्रान।
ईर्ष्‍या हरता धर्म को, हरत ज्ञान अभिमान।। 66 ।।
अट्ठाराहों पुराण में, व्‍यास वचन द्वै सार।
पर पीड़न अति पाप है, पुण्‍य बडा़ उपकार।। 67 ।।
हरण कियो पर नारि को, पर धन लियो दबाय।
कुशल नहीं संसार में, कहत नीति असगाय।। 68 ।।
वर्ण-तूलिका हाथ ले, रचिए सुंदर चित्र।
ज्ञान-तूलिका से करो, अपनी आत्‍म पवित्र।। 69 ।।
विन वक्‍ता विद्या वृथा, वृथा कृपण धन होय।
कायर कर भुजबल वृथा, संसय रहा न कोय।। 70 ।।
श्रेष्‍ठ कर्म अपनाईए चित राखहु परितुष्‍ट।
उद्धत मति मत कीजिए, राख सुजन संतुष्‍ट।। 71 ।।
ईधन लड़कर आग से लीन्‍हों अंग लजाय।
अग्निकवच तन पर नहीं, क्‍यों न भस्‍म हो जाय।। 72 ।।
मन होवे उद्भ्रांत नहीं, करो प्रभु का ध्‍यान।
बोधगम्‍य सुविचार रख, होय आत्‍म कल्‍यान।। 73 ।।
बुद्धितत्‍व रख हृदय में, कर विचार से काम।
ज्ञान भ्रष्‍ठ होवे नहीं, पावोगे विश्राम।। 74 ।।
वैभवयुक्‍त प्रभावयुत, शोभायुत सुहाय।
है प्रभाव भगवान की, जो अव्‍यक्‍त कहाय।। 75 ।।
योगाचारी संतजन, करत प्रभु गुणगान।
दृढ़व्रत से कर लेत हैं, जो भवचक्र निदान।। 76 ।।
फल ईच्‍छा से रहित हो, कर्म करो निष्‍काम।
यह गीता की ज्ञान है, संतत मंजु मुदाम।। 77 ।।
जो निज कुल में जन्‍म ले कियो सुयश विस्‍तार।
सोनर जग में धन्‍य हैं, कियो नाम उजियार।। 78 ।।
सुयश पात्र वे नर भए, जो नर मेध समान।
हरत रहत संताप को, अमृत जल दे दान।। 79 ।।
जूप कर्म लंपट पिशुन, मद्यपान अभिमान।
परत्रिय परधन से सदा, रहो दूर कर ध्‍यान।। 80 ।।
संपति में सुख विपति में, जेहि विषाद नहिं होय।
पुनि रण में निर्भय रहे, तेहि सम धन्‍य न कोय।। 81 ।।
जूप कर्म में सत्‍य पुनि, धैर्य नपुंसक माहिं।
काग मध्‍य शुचिता रहे, देखा सुना न काहि।। 82 ।।
तरुणा अवस्‍था में रहो शांति वही नर शांति।
इंद्रिय हो गई जीर्ण जब, शांति नहीं वह भ्रांति।। 83 ।।
स्‍वस्‍थ्‍य देह प्रिय नारि हो, विद्या गुण सत्‍पुत्र।
सहनशीलता संपति, है यह सुख का सूत्र।। 84 ।।
अऋण निरुज सतसंग पुनि, रहना सदा निशंक।
बुरे व्‍यसन से रहित जो, सो शुचि यथा मयंक।। 85 ।।
पंच विकारों को विजय, जो नर जग में कीन्‍ह।
कोई शत्रु उनकर नहीं, विश्‍व विजय कर लीन्‍ह।। 86 ।।
जो असत्‍य के योग से, सिद्ध होत हैं काम।
मनको नहीं लगाईए, पावोगे विश्राम।। 87 ।।
आय से बढ़कर व्‍यय करें, है संकट की राह।
वैर करें बलवान से, है पिटने की चाह।। 88 ।।
तरुण अवस्‍था में करो, साहस से सतकर्म।
वृद्धपने में होय सुख, बना रहे सत-धर्म।। 89 ।।
अनाचार से नित बचो, रखना विमल विचार।
लोक और परलोक में, सुख कर हो संचार।। 90 ।।
काने को अंधा हँसे, हँसे हँस को काग।
ज्ञानी को मूरख हँसे, देख हँसी मोहि लाग।। 91 ।।
क्रोधादिकन विकार को, जो मर्दन कर देत।
ज्ञानी योगी है वही, परमारथ के हेत।। 92 ।।
यज्ञ दान पत कर्म को, देना नहीं विसार।
फल की इच्‍छा छोड़िए, है गीता की सार।। 93 ।।
शास्‍त्र विहित सत्‍कर्म से, रहें दूर जो लोग।
मिलना दुर्लभ परम गति, मिटे नहीं भवरोग।। 94 ।।
व्‍याधि शत्रु इन दोऊन को, कर अविलंब विनाश।
नाहिं तो दुख में पडो़गे, नीति कियो प्रकाश।। 95 ।।
पापी के संगति करे, जो निष्‍पापी संत।
संगति का फल है बुरा, बनते संत असंत।। 96 ।।
संपति-विद्या जेहि मिला, मिला पुन: एश्‍वर्य।
बने प्रमादी ना कभी, तो वह पंडित वर्य।। 97 ।।
मिले मान हो मान नहिं, रंज न सुन अपमान।
उभय एक सम मानते, ज्ञानी वही सुजान।। 98 ।।
अति निंद्रा तंद्रा निलज, क्रोधातुर भयभती।
दीर्घ सूत्री आलस्‍य युत, सपदि त्‍यागिए मीत।। 99 ।।
कटु भाषण पर धन हरण, निंदा छल है ताप।
अमृत वचन ईर्ष्‍यादि से, मिलता है संताप।। 100 ।।
मितभाषी दानी बनो, बनो धीर विद्वान।
सुयश पात्र जग में बनो, बनो सुभग गुणवान।। 101 ।।
शोभा नर का दान से, नहिं भूषण के मांहि।
तृप्‍त होत सम्‍मान से, भोजन सों हैं नाहिं।। 102 ।।
नहीं वेष में भक्ति है मुक्ति ज्ञान से होय।
श्रेष्‍ठ मार्ग पर जो चले, बुद्धिमान नर सोय।। 103 ।।
करते पर अपकार जो, रहत धर्म अनुकूल।
सुख संपति दिन दिन बढे़, मिटत हृदय की शूल।। 104 ।।
गायत्री सम मंत्र नहिं हित कर मातु समान।
सत्‍य से बढ़ कर धर्म नहिं ब्रह्म ज्ञान सम ज्ञान।। 105 ।।
सोच समझ के काम कर, नहिं पछतावा होय।
बिना विचारे कीजिए, हँसी करे सब कोय।। 106 ।।
दीन दुखी असहाय की, जो नर करत सहाय।
कृपा दृष्टि भगवान की, कभी दूर नहिं जाय।। 107 ।।
अष्‍ट अंग है योग के, साधक साधत जाहि।
रहत निरुज आयु बढे़, शक्तियोग के मांहि।। 108 ।।
क्रम से यम पुनिनियम हैं, आसन प्राणायाम।
प्रत्‍याहार अरु धारणा, ध्‍यान समाधि है नाम।। 109 ।।
यम के पुनि दश अंग है, सत्‍य अहिंसा त्‍याग।
ब्रह्मचर्य धीरज क्षमा, कर इनसे अनुराग।। 110 ।।
अंग सातवां है दया, अष्‍टम आर्यव जान।
मिताहार पुनि शौच है, दशो अंग पहचान।। 111 ।।
इंद्रिय सब बश में रहे, नहिं कुमार्ग पर जाय।
निग्रह कहते हैं सुजन, यह यम नाम कहाय।। 112 ।।
अंतरंग वहिरंग रख, शुचि संतोष पुनि होय।
चिंतन कीजै ब्रह्म के, नियम कहावे सोय।। 113 ।।
तृतीय योग के अंग है, आसन नाम कहाय।
ढंग बैठने की कहयो, योगी जन समझाय।। 114 ।।
प्राणायाम से कीजिए, वश में अपना श्‍वास।
आयु बढे़ तन निरुज हो, त्‍याग नहीं विश्‍वास।। 115 ।।
विषयों से लिजे हटा, इंद्रिय को मन मार।
चित्त एकाग्र कर लीजिए, है यह प्रत्‍याहार।। 116 ।।
पहचानिए भगवान को, कर धारण मन माँहि।
शनै शनै श्‍वासबढे़, नाम धारणा ताहि।। 117 ।।
लीन होय मन ध्‍यान में, ध्‍यान कहावे सोय।
मिले सफलता योग में, सिद्ध कार्य सब होय।। 118 ।।
अष्‍टम अंग समाधि है, मन हो हरि में लीन।
मुक्‍त होय सब कलेश से योगी होय प्रवीन।। 119 ।।
माटी सबकी मातु है, रख माटी से प्रेम।
माटी पोष्‍त स‍बहि को, यह माटी की नेम।। 120 ।।
माटी से बस सृष्टि है, तन माटी से होय।
माटी में लय होत है, बाल वृद्ध सब कोय।। 121 ।।
लोहा माटी से मिले, जग कर उन्‍नति होय।
हीरादिक पुनि धातु सब, माटी रही संजोय।। 122 ।।
बिना काष्‍ट के चल सके, नहिं जीवन की नाव।
सब माटी से होत हैं, यह माटी की भाव।। 123 ।।
सुंदर पुष्‍य सुगंधयुत, माटी से ही होय।
देवन के शिर पर चढ़े, जानत हैं सब कोय।। 124 ।।
बैठ हथेली पर लिए, सागर सप्‍त समूल।
छाती पर पर्वत धरे, ज्‍यों कपास के फूल।। 125 ।।
सब की उत्‍पति जगत में, माटी से दिखलाय।
सब कर पोषण होत है, माटी सबको खाय।। 126 ।।
जलचर थलचर व्‍योमचर, और उभयचर जान।
सब की जड़ माटी रही, माटी बनी महान।। 127 ।।
इस असार संसार में, उभय वस्‍तु सार।
हरिचिंतन पुनि सत्‍यता, लीजे मन में धार।। 128 ।।
नरतन को रथ जानिए, रथी आत्‍मा मान।
मन लगाम पहचानिए, बुद्धि सारथी जान।। 129 ।।
दश घोडे़ का रथ बना, दश इंद्रिय है सोय।
विषय मार्ग कहते सुजन, संसय है नहिं कोय।। 130 ।।
जहाँ सारथी बुद्धि है, अश्‍व रहत वश माहिं।
जहाँ निर्बुद्धि सारथी, सदा अधोगति जाहिं।। 131 ।।
विषय इंद्रियों से प्रबल, यह उपनिषद् का ज्ञान।|
विषयों से भी मन प्रबल, जेहि समुझत गुणवान।। 132 ।।
मन से भी मन प्रबल, निर्मल सुंदर ज्ञान।
बुद्धि से भी है प्रबल, महा आत्‍मा जान।। 133 ।।
महा आत्‍मा से प्रबल, मुक्‍त आत्‍मा मान।
मुक्‍त आत्‍मा से प्रबल, विश्‍व पिता भागवान।। 134 ।।
विश्‍व पिता भगवान से, प्रबल रहा कुछ नाहिं।
तेहि कारण ज्ञानी सुजन, शरण प्रभु के जाहिं।। 135 ।।
प्राण अपान समान है, चौथा रहा उदान।
व्‍यान पाँचवा नाग उठ, कूरम सप्‍त बखान।। 136 ।।
देवदत है आठवाँ, कृकल नवम पहचान।
दशम धनंजय वायु है, योग शास्‍त्र का ज्ञान।। 137 ।।
श्‍वांस वायु ही प्राण है, जीवन जासे होय।
भुदा वास है वायु की, नाम अपान है सोय।। 138 ।।
वायु समान की वास है, नाभि मध्‍य पहचान।
कंठ माहिं वायु रहत, तेहिकर नाम उदान।। 139 ।।
व्‍यापक सारे अंग में, नाम है जाकर व्‍यान।
जब डकार आवे तुम्‍हें, नाम वायु पहचान।। 140 ।।
उठे गिरे नयन पलक, कूरम वायु कहाय।
देवदत से जाँनिए, जबहिं जँभाई आय।। 141 ।।
भूख देय वायु कृकल, रैन दिवस या शाम।
मृत्‍युवाद जब तन फुले, तासु धनंजय नाम।। 142 ।।
मिताहार कीजै अधिक, भोजन है दुखदाय।
अति भोजन जिन अंग में, विविध रोग उपजाय।। 143 ।।
बंधे अज्ञ के पाश में, सो नर पशु कहाय।
ऐसा नर तन है वृथा, पशुता में तन जाय।। 144 ।।
चक्‍की सम कुछ लोग हैं, पीस रहे दे जोर।
सता रहे हैं गैर को, खुद करते हैं शोर।। 145 ।।
डाह करो मत किसी से, बुरी है परसंताप।
सुख विनशे सिर दुख पडे़, लगे भयानक पाप।। 146 ।।
निज नयनन की नीलिका, देखत नहीं अयान।
लघु तृण लखि पर नेत्र में, हंसत रहत सुख मान।। 147 ।।
हरा वृक्ष को देखिए, भरी पात पर पात।
ऐसे ज्ञानी सुजन के, विमल बात पर बात।। 148 ।।
द्रवित होत मन जासु के, देख दुखिन के ओर।
ऐसा हृदय पवित्र है, देत दया पर जोर।। 149 ।।
पूर्ण-चंद्र से रात्रि की, शोभा बढ़त अपार।
शोभित वंश सुपुत्र से, शील से शोभित नार।। 150 ।।
सत संगति नित कीजिए, बढे़ सदा शुभ ज्ञान।
ओछे संग मत बैठिए, भंग हो गई मान।। 151 ।।
क्षणभंगुर प्राणी सभी, यह विवेक उरधार।
प्रभु को कभी न भूलिए, है यह विमल विचार।। 152 ।।
षद् विकार लेजात हैं, अधोगति की ओर।
मोहित करते आत्‍म को, अंत विपत अति घोर।। 153 ।।
ब्रह्मचर्य व्रत सत्‍य पुनि, पाल अहिंसा कर्म।
पर निंदा मत कीजिए, विश्‍व विदित सत धर्म।। 154 ।।
बैर बुरे से मत करो, करो बुराई त्‍याग।
बैर बुराई से करो, जगे तुम्‍हारो भाग।। 155 ।।
मानव के कल्‍याण की, राख सदा सुविचार।
मन को शुद्ध बनाईए, सत्‍य हृदय में धार।। 156 ।।
मिलना है जगदीश से, वचन सत्‍य यह मान।
सेवा दुखियों की करो, मिल जैहें भगवान।। 157 ।।
तन अशुद्ध हो जात हैं, किए बिना सुस्‍नान।
यों मन मैला होत हैं, भजे बिना भगवान।। 158 ।।
मरने से पहले मरें, करें न जो शुभ कर्म।
मरकर भी वे नर अमर, जो न तजें निज धर्म।। 159 ।।
डूब रहे जो सिंधु में, बने बचावन हार।
आश उनकी कत करो, डुबो गे मंझधार।। 160 ।।
सुनो अधिक कम बोलिए, कीजे यह विश्‍वास।
शिक्षा दो गर जगत को, कर पहिले अभ्‍यास।। 161 ।।
पालन कर कर्तव्‍य को, कहने से क्‍या होय।
जग देखे-देखे नहीं, मिले सफलता सोय।। 162 ।।
नदी दे रहा जल सदा, प्‍यासा जाम न कोय।
आलसी बन बैठे रहो, मरे प्‍यास से सोय।। 163 ।।
भक्ति वृथासंसार में, बिन श्रद्धा विश्‍वास।
ढोंगी बन भक्‍ती करें, निज कर करें विनाश।। 164 ।।
भूल न मन से कीजिए, रखना सत्‍य विचार।
कभी भूल हो जाय जो, कर लीजे स्‍वीकार।। 165 ।।
मद से हाथी वेग से शोभित अश्‍व महान।
शोभत बुधजन से सभा, कहते चतुर सुजान।। 166 ।।
भूल करो स्‍वीकार जो, मन की मिटे विकार।
क्ष्‍मा योग्‍य हो जावोगे, दूर होत कुविचार।। 167 ।।
मन में जो कुछ पाप है, है वह विषधर व्‍याल।
जितना जल्‍दी हो सके, बाहर देहु निकाल।। 168 ।।
सहनशील संतुष्‍ट को, जो नर लिए अपनाय।
राग द्वेष से रहित हैं, मुख प्रसन्‍न दिखलाय।। 169 ।।
हृदय प्रफुल्लित रहत नित, ज्ञानवान नर जोय।
शीतलता पुनि मधुरता, स्‍वाभाविक गुण होय।। 170 ।।
नर चिंता को त्‍याग के, कर्म करो मन लाय।
प्रभु चिंतन नित कीजिए, चिंता स्‍वयं नशाय।। 171 ।।
वे नर जग में, धन्‍य हैं, जो करते सतसंग।
विमल ज्ञान दिन दिन बढे़, होय अविद्या भंग।। 172 ।।
जिना ही प्रभु प्रेम में, मगन रहोगे आप।
उतना ही भक्‍ती मिले, मिटे हृदय की ताप।। 173 ।।
काटों में खिलकर सुमन, सुंदर देत सुवास।
ऐसे दुख में भी सुजन, करते ज्ञान प्रकाश।। 174 ।।
निज भाषा निज संस्‍कृति, शुभ आचरण स्‍वधर्म।
दृढ़ता से अपनाईए रक्षित हो सत्‍यकर्म।। 175 ।।
अस्‍त्र-शस्‍त्र बल बाहुबल, पुन: बुद्धिबल होय।
ऐसा राष्‍ट्र समर्थ है, मानत बुधजन सोय।। 176 ।।
नहीं असत्‍य भाषण करें, करते सबसे प्‍यार।
शत्रु-मित्र सम मानते, तिनकर शुद्ध विचार।। 177 ।।
भौतिक उन्‍नति विश्‍व में, कितना ही हो जाय।
आध्‍यात्मिक उन्‍नति बिना, भव भय नहीं नशाय।। 178 ।।
बिन अध्‍यात्मिक क्रांति के, बिना संस्‍कृति धर्म
हृदय शांति होवे नहीं, है यह अविचल मर्म।। 179 ।।
अतिथि और पितु मातु को जो, न करें सम्‍मान।
आत्‍म ज्ञान कुछ है नहीं, सो नर मृतक समान।। 180 ।।
बुद्धि स्‍थान है धर्म का, यश का है शुभ दान।
सत्‍य स्‍थान है स्‍वर्ण का, सुख कर शील बखान।। 181 ।।
दया जगत में धर्म है, है अधर्म अभिमान।
त्‍याग दया मत कीजिए, कह गए संत सुजान।। 182 ।।
शोक रहित नर तब बने, करे क्रोध का त्‍याग।
लोग त्‍यागिए हृदय से, तब हो निर्मल ज्ञान।। 183 ।।
हरजन जग में हों सुखी, जिन कर विमल विचार।
दया इसी का नाम है, रखते सब से प्‍यार।। 184 ।।
दुर्जन शत्रु क्रोध है, लोभ व्‍याधि की खान।
निर्दयतापन जगत में, है महान अज्ञान।। 185 ।।
है पंडित सोई जगत में, जो धर्मज्ञ कहाय।
महामूर्ख तेहि मानिए, ले अधर्म अपनाय।। 186 ।।
भले बुरे निज कर्म से, नर सुख दुख जग लेत।
भले कर्म से सुख मिले, बुरा कर्म दुख देत।। 187 ।।
बुधजन को नित चाहिए, रहें भ्रांति से दूर।
मिटे अज्ञता हृदय के, बने सुजन में शूर।। 188 ।।
जग के बंधन से बचो, प्रभु से नाता जोड़।
ले आश्रय भगवान की, भवबंधन को तोड़।। 189 ।।
हे नर कपट कुचाल तज, तजो कपट व्‍योहार।
गरल नहीं अपनाइए, अमिय पचावनहार।। 190 ।।
यत्‍न त्‍याग की कीजिए, सभी जुगुप्‍सा कर्म।
यश भाजन जग में बनो, बना रहे सत धर्म।। 191 ।।
यत्र-तत्र भटकत फिरें, मन अशांति में जाय।
मृग-मरीचिका से कहो, कैसे प्‍यास बुझाय।। 192 ।।
मातु बनी व्‍यभिचारिणी, कपटी मित्र कुनारी।
पुनि कुपुत्र गृह में भयो, चुभत शूल समचारि।। 193 ।।
जननी वह तो जन्‍म दे, माता पालन हार।
जो जननी पाले नहीं, नहीं मातु अधिकार।। 194 ।।
जनक पिता नहिं बन सके, सके पाल नहिं लाल।
जो पाले वह है पिता, शिशु को लेत संभाल।। 195 ।।
क्षमा रूप है सुजन के, असुर रूप अभिमान।
नारि रूप है पतिव्रता, है यह अविचल ज्ञान।। 196 ।।
बल बुद्धि विद्या मनुज में, जो कुछ दे भगवान।
नर की सेवा कीजिए, जन्‍म सफल तब जान।। 197 ।।
हे नर बनिए कुसुम सम, कर गुण-सौरभ दान।
अहंकार ईर्ष्‍यादि से, बचे रहो तज मान।। 198 ।।
श्रद्धा पुनि विश्‍वास से कर वैराग्‍य विकास।
मान बड़ों की कीजिए, अवगुण होय विनाश।। 199 ।।
मन की निर्मल भावना, मधुर बोल में होय।
सत्‍य कहो पर प्रिय रहे, अतिशयोक्ति दो खोय।। 200 ।।
भ्रष्‍टचार उदंडता, निंदा पुनि अन्‍याय।
पतन होत निज आत्‍म की, बुधजन दिए बताय।। 201 ।।
हे नर हर नर से सदा, करिए प्रेम समान।
प्रेम सिंधु में मग्‍न हो, मिल जैहें भगवान।। 202 ।।
संगति कीजे संत से, करो न संग असंत।
सत संगति से सुख मिले, तिन संग विपत अनंत।। 203 ।।
जल संगति किए दूध से, बिको दूध के दाम।
कांजी संगति दूध किए, भयो दूध बे काम।। 204 ।।
धन से करते प्रेम सब, प्रभु से बिरले कोय।
करें प्रेम भगवान से, धन्‍य कहावे सोय।। 205 ।।
जो विशेष चैतन्‍य है, विमल ज्ञान मय जान।
हृदय मध्‍य जीवन रहा सोई आत्‍मा मान।। 206 ।।
अंत:करण में ज्‍योति है, चेतन प्राणन माहि।
व्‍यापक सारे अंग में, सोई आत्‍मा कहाहिं।। 207 ।।
बाग शून्य है पुष्‍प बिन, शून्‍य चंद्र बिन रैन।
धर्म रहित तन शून्‍य है, शून्‍य नृपति बिन सैन।। 208 ।।
नारि शून्‍य है शील बिन, शून्‍य पुत्र बिन गेह।
जल बिन सागर शून्‍य है, शून्‍य दीप बिन स्‍नेह।। 209 ।।
श्रम करके विद्या पढे़, भए गुणों के धाम।
त्‍यागे नहीं कुरीति को, यह पढ़ना बेकाम।। 210 ।।
क्षमा धीरता शीलता, रखना शुभ व्‍योहार।
पालन कीजै सर्वदा, सद्गुण प्रेम उदार।। 211 ।।
विपतकाल में भी करो, उन्‍नति और सुधार।
निज संस्‍कृति पुनि सभ्‍यता, देना नहीं बिसार।। 212 ।।
सदाचार उपकार धृति, दया धर्म पुरुषार्थ।
धारण नित मन में करो, रख विचार परमार्थ।। 213 ।।
ऐसी बातें मत करो, जिस में ईर्ष्‍या होय।
जलन द्वेष या कलह हो, मन से दिजे खोय।। 214 ।।
राग रहित होकर रहो, सकल वस्‍तु से आप।
मम-मेरी माया प्रबल, मिलत इनहीं से ताप।। 215 ।।
छिपी व्‍यंजना शब्‍द में, अर्थ सके सके नहिं बूझ।
मन-दर्पण पर अज्ञ-मल पडे़ ज्ञान किमि सूझ।। 216 ।।
विद्या गुण सदृभाव से, जन कर करत सहाय।
ऐसे नर कर विमल यश, रहत विश्‍व में छाय।। 217 ।।
दीजे दान सुपात्र को, दुर्गुण से रहो दूर।
पुण्‍य कर्म में रम रहा, बनो सुजन में शूर।। 218 ।।
कर्ण दियो नहिं पार्थ को, नहिं दु:शासन भीम।
पत्‍नी को मत दीजिए, लीजे सुयश असीम।। 219 ।।
पशुवाद फैले नहीं, सात्विक राख विचार।
कर प्रशस्‍त शुभ कर्म को, करो सत्‍य से प्‍यार।। 220 ।।
मन पवित्र रखिए सदा, रहो धर्म अनुकूल।
मिले सफलता धर्म में, मिटे हृदय की शूल।। 221 ।।
कितना भी संकट पडे़, त्यागिए अकृत्‍य कर्म।
कृत्‍य कर्म अपनाईए, यही सनातन धर्म।। 222 ।।
करत अमित्र को मित्र जो, उसे अंत दुख होय।
गरल मनहु भक्षण करत, बुद्धि‍हीन नर सोय।। 223 ।।
बुद्धिमान निज शत्रु को, करें शत्रु से नाश।
कांटे से कांटे कढे़, होवे दर्द विनाश।। 224 ।।
अग्नि शेष ऋण शेष पुनि, शत्रु शेरू रुज शेष।
होगे तुम तबही सुखी, कर इनकर निश्‍शेष।। 225 ।।
करत मित्र से द्वेष जो, करत कुमित्र की मान।
शुभ को मानत अशुभ जो, सो नर मृतक समान।। 226 ।।
विपत मांहि धीरज धरें, सुख में हर्ष न मान।
पुनि रण में निर्भय रहें, महा पुरुष तेहि जान।। 227 ।।
प्रियवाणी की रस कभी, सके न मूरख जान।
ज्‍यों कुलटा के पास नहीं, पतिव्रता कर ज्ञान।। 228 ।।
बदी करे तो करन दे, बुरा मान मत सोय।
बुरा उसे तू मानिए, तुझ से बदी जब होय।। 229 ।।
जन्‍म भूमि सम भूमि नहीं, नहिं हितकर पितुमात।
गंगाजल सम जल नहीं, है जग में विख्‍यात।। 230 ।।
जन्‍म भूमि जननी जनक, सम प्‍यारा कछु नाहिं।
मान्‍य सर्वदा कीजिए, दुर्लभ है जग माहिं।। 231 ।।
जहाँ नहीं है धर्म कुछ, वहाँ न विद्या लेश।
लक्ष्‍मी नहिं आरोग्‍यता, बापू का उपदेश।। 232 ।।
कुमुदहि प्रियजिमि कौमुदी, जलजहि प्रियजिमि भाग।
तिमि प्रिय ज्ञानी सुजन के, विश्‍वपिता भगवान।। 233 ।।


कुछ महान पुरुषों की जन्‍म तिथियाँ

पंद्रह सौ चालीस मई, तारिख नव शुभ ठौर।
राणाप्रताप के जन्‍म दिन, वीरों के शिरमौर ।। 234 ।।
तीन दिसंबर अट्ठारह सौ चौरासी सन जान।
श्री राजेन्‍द्र प्रसाद के, जन्‍म दिवस पहचान।। 235 ।।
अट्ठारह सौ तिहत्तर, बाईस अक्‍टूबर मास।
स्‍वामी रामतीर्थ कर, जन्‍म दिवस प्रकाश।। 236 ।।
सोलह नवंबर अट्ठारह सौ, पुनि पैंतिस शुभ वर्ष।
झाँसी की रानी लियो, जन्‍म भयो अति हर्ष।। 237 ।।
अट्इारह सौ तिरसठ, अट्ठारह फरवरी मास।
रामकृष्‍ण परमहंस कर, जन्‍म दिवस प्रकाश।। 238 ।।
अट्ठारह सौ उनहत्तर, दो अक्‍टूबर जान।
बापूजी ने जन्‍म लियौ, है जग में अति मान।। 239 ।।
सात मई अट्ठारह सौ, पुनि एकसठ था साल।
रविंद्रनाथ विश्‍व कवि, जन्‍मे माँ के लाल।। 240 ।।
अट्ठारह सौ छप्‍पन था, तीन जुलाई मास।
बाल गंगाधर तिलक की, जन्‍म कहत इतिहास।। 241 ।।
अट्ठारह सौ पचहत्तर था, इकतिस अक्‍टूबर मास।
श्रीवल्‍लभ भाई पटेल का, जन्‍म दिवस है खास।। 242 ।।
अट्ठारह सौ नवासी था, चौदह नवंबर जान।
श्री नेहरू के जन्‍म दिन, कह इतिहास बखान।। 243 ।।
ग्‍यारह नवंबर अट्ठारह सौ, पुनि अट्ठासी जान।
मौलाना अबुल कलाम, जन्‍मे बीच जहान।। 244 ।।
सत्रह दिसंबर मास था, पंद्रह सौ छप्‍पन साल।
कवि रहीम जन्‍मे जगत, बैरमखाँ के लाल।। 245 ।।
तेईस जनवरी अट्ठारह सौ, पुनि संतानवे मान।
नेता सुभाषचंद्र का, जनम दिवस पहचान।। 246 ।।
तेईस फरवरी अठा्रह सौ उन्‍नासी था साल।
देवी सरोजनी जन्‍म लियो, भै परिवार निहाल।। 247 ।।
सोलह सौ सत्ताईस सन्, छह अप्रेल शुभ मास।
वीर शिवाजी जन्‍म लियो, विश्‍व विदित इतिहास।। 248 ।।
था अट्ठारह जनवरी, लाला लाजपत राय।
अट्ठारह सौ पैंसठ में, लियो जन्‍म जग आय।। 249 ।।
सन् उन्‍नीस सौ चार में, एक अक्‍टूबर मास।
लालबहादुर शास्‍त्री, जन्‍मे कहत इतिहास।। 250 ।।


उपसंहार

दीनबंधु करुणायतन, भव भय नाशनहार।
करहु कृपा मुझ दीन पर, दीजै शुद्ध विचार।। 251 ।।
सकल कला से शून्‍य हूँ, नहिं कविता की ज्ञान।
नहिं उपमा उपमेय की, करूँ ठीक पहचान।। 252 ।।
लक्षक अभिधा लक्षणा, सको समझ नहिं भाव।
शब्‍द भेद का ज्ञान नहिं, नहिं लोकोक्ति सुझाव।। 253 ।।
वाच्‍यार्थ लक्ष्‍यार्थ पुनि, नहिं व्‍यंग्‍यार्थ कर ज्ञान।
नहिं संचारीभाव को, कर पाऊँ पहचान।। 254 ।।
अलंकार के भेद बहु, कविता के शिरताज।
कविता-कामिनि के लिए, अलंकार है साज।। 255 ।।
बुद्धि बिना समझूँ कहाँ, कविता भेद अपार।
तदपि किए कविता कछुक, लघुमति के अनुसार।। 256 ।।
कवि कोविद संसार के सबको करूँ प्रणाम।
छोटे को आधार है, आशिर्वाद मुदाम।। 257 ।।
सूरज सम भारत कवि, कविता रश्मि कहाय।
सुजन सरोज सुकोक सम, होहिं सुखी निधिपाय।। 258 ।।


सुरीनाम के कवि

शशि सम सुरजन अमरसिंह, था मुंसी रहमान।
कविता-सरिता विमल जल, करत किए सुस्‍नान।। 259 ।।


ग्रंथ पूर्ण होने की तिथि

वेद वसु ग्रह भेमि सन, शास्‍त्र मास पहचान।
तिथि नक्षत्र शशि सुवनदिन, पूर्ण ग्रंथ प्रमान।। 260 ।।

 


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